रिक्शा चालक मोहम्मद शेख़ का दर्द भरा जीवन और उनकी मृत्यु हमारे समाज को आइना दिखाते हैं
उन्होंने अपने जीवन की कहानी कैमरे पर बयां की थी, लेकिन उन जैसे कितने लोगों की कहानियां सुनने वाला कोई नहीं है?

ईद के त्यौहार से कुछ रात पहले दिल्ली के फुटपाथ पर सो रहे एक 50 साल के बुजुर्ग रिक्शेवाले को एक तेज़ रफ़्तार वाहन ने कुचल दिया. उनकी मौके पर ही मौत पर हो गई. इस देश में सड़क के किनारे सोने वाले बेघर लोगों को अक्सर वाहन कुचल कर निकाल जाते हैं. इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि इस बेघर व्यक्ति की मौत की ख़बर अख़बार के भीतरी पन्नों में भी जगह नहीं बना पाई.
इस घटना के एक पखवाड़े बाद, जब मैं यह लिख रहा हूं, इस व्यक्ति का शव अभी तक मुर्दाघर में रखा हुआ है. पुलिस इसे नहीं दफना रही है, क्योंकि उससे पहले किसी स्थानीय अख़बार में उनकी फ़ोटो छपवानी होगी. लेकिन पुलिस वालों को यह करने के लिए वक़्त ही नहीं मिला है.
क्या इस व्यक्ति की यही तक़दीर थी कि वह सिर्फ एक और गुमनाम “लावारिस शरीर” बन कर ठंडे पुलिसिया आंकड़ों में मिट जाए? जिसका कोई नाम ना हो. कोई पहचान ना हो. जिसके लिए कोई रोने वाला ना हो. बेघर और निराश्रित. अपने पीछे वह इस बात का सबूत भी नहीं छोड़ सकता कि कभी वह जीवित भी था. क्या उसके ज़िंदगी और मौत का कोई महत्व नहीं था?
लेकिन इस व्यक्ति का नाम हमें मालूम है. और इनके जीवन का अमूल्य ब्यौरा भी हमारे पास है. इनका नाम मोहम्मद अब्दुल क़ासिम अली शेख़ था. हम लोग उनके बारे में जान पाए क्योंकि कारवां-ए-मोहब्बत ने कामगारों के जीवन पर छोटी फ़िल्में बनाने की पहल की थी. हम जीवन और अपने देश के बारे में इनके दृष्टिकोण को समझना चाहते थे. शायद हम उनके जीवन से कुछ सीख पाते. इस ज़रिए से हम सोशल मीडिया की ज़हरीली दुनिया में सेंध लगाना चाहते थे.
एक चुलबुले और मिलनसार इंसान
हमारी लघु फ़िल्म के लिए शेख पहली पसंद थे. अपने जीवन के अंतिम सालों में शेख़ मेरे सह-कार्यकर्ताओं द्वारा चलाए जा रहे आश्रय गृह अमन बिरादरी में रह रहे थे. यह आश्रय गृह पुरानी दिल्ली में यमुना किनारे गीता घाट के पास था. शेख़ एक चुलबुले और मिलनसार इंसान थे. हमारे संपर्क करने पर उन्होंने कैमरे के सामने अपनी कहानी बताने की इच्छा जताई.
उन्होंने बड़ी ही तन्मयता के साथ दार्शनिक और काव्यात्मक अंदाज में हमसे बात की, अपने जीवन की कहानी सुनाई — कैसे वो आठ साल की उम्र में बंगाल के एक गांव से भाग कर दिल्ली आए, बचपन में उनका शोषण हुआ, सेक्स वर्कर के तौर पर काम करके अपना पेट पाला, एचआईवी पॉज़िटिव होना और रिक्शा चला कर आत्म-सम्मान के साथ अपना जीवन यापन करना.
फ़िल्म बनने के बाद जब शेख़ को दिखाई गई, तो उन्होंने कहा कि इसे दुनिया को दिखाओ. इस लघु फ़िल्म ने हर दर्शक को काफ़ी प्रभावित किया .

फिल्म की शुरुआत में शेख़ पूछते हैं कि एक बेघर इंसान को आप कहां धकेल सकते हो? अगर आप उसे दिल्ली से धक्के देकर निकालोगे तो वह जयपुर जाएगा. अगर आप उसे जयपुर से धकियाओगे तो वह अजमेर जाएगा. अजमेर से निकालोगे तो कानपुर जाएगा और अगर कानपुर से निकालोगे तो वह कोलकाता चला जाएगा. यदि कोलकाता से भी उसे धक्के देकर निकाल दोगे तो वह फिर से दिल्ली पहुंच जाएगा. एक बेघर इंसान गलियों के अलावा और कहां जा सकता है? गलियों में भटकने वाला व्यक्ति ताउम्र गलियों का ही होकर रह जाता है. उसके लिए और कोई जगह नहीं बनी है.
भूख और ग़रीबी से पीछा छुड़ाकर शेख़ आठ साल की उम्र में दिल्ली पहुंचे थे. तब उनके पास मात्र चावल का एक छोटा सा झोला और थोड़ा गुड़ था. जीवन के अगले 40 साल उन्होंने बेघर रहकर ही गुजार दिए. इन परिस्थितियों में उन्होंने जो काम मिला वो किया. शहर की गलियों में अकेले सो कर, सिर्फ़ पांच रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी भी की. ऐसे वक्त में शेख़ ने मौसम, भूख और अकेलापन, सबको मात दी थी.
एक दिन, उम्र में बड़े एक आदमी ने शेख़ की ओर इशारा किया. क्योंकि शेख़ महज़ एक बच्चा था, उसे इस व्यक्ति की विनम्र बातें वैसी ही लगी जैसी किसी भी मासूम बच्चे को लगेंगी. उस आदमी ने शेख़ को कुछ खाने का सामान दिया और अपने साथ चलने को बोला. वह आदमी क़ासिम को अपने कमरे पर लेकर गया और दरवाज़ा बंद कर दिया. फिर उस व्यक्ति ने अपने कपड़े उतार दिए और शेख़ पर यौन सम्बन्ध बनाने का दबाव डाला. शेख़ को इस बात से घिन्न आई, उसने विरोध किया लेकिन वह व्यक्ति अपनी जिद्द पर अड़ा रहा. कुछ समय बाद, यह शेख के लिए ज़िंदा रहने का तरीक़ा बन गया. जब कभी शेख़ को भूख लगती, वह किसी रेस्तरां के बाहर खड़ा हो जाता और आदमी उसे ले जाते, उसका उत्पीड़न कर उसे बदले में खाना या पैसा दे देते. ऐसा करते-करते वह जवान हुआ.
जब शेख़ ने रिक्शा चलाना सिख लिया, तब मेहनत-मज़दूरी के कारण आत्म-सम्मान और उस ज़िंदगी से छुटकारा, दोनों मिल गए. कुछ समय पैसे बचा कर खुद के लिए रिक्शा खरीद लिया. लोग अब भी उसे सेक्स के लिए कहते थे पर वह सीधे-सीधे मना कर देता था. कुछ लोग फिर भी उसके साथ ज़बरदस्ती करते थे. इनसे बचने के लिए शेख़ ने नहाना छोड़ दिया और अपने शरीर पर गंदगी के साथ रहने लगा. उसके शरीर से आने वाले दुर्गंध ने ऐसे मर्दों को उससे दूर रखा, और अब वह आराम से सड़कों पर सो सकता था.
जैसे-जैसे साल बीतते गए, शेख़ का शरीर कमज़ोर होने लगा था. वह अक्सर बीमार पड़ जाया करता था. आखिरकार वह एक डॉक्टर के पास गया, जहां उसे पता चला कि उसे एचआइवी है. उसे बताया गया कि अस्पताल में उसका इलाज़ हो सकता है, लेकिन इसके लिए उसे पहचान-पत्र पेश करना होगा.

लेकिन, एक बेघर इंसान की क्या पहचान होगी? शेख़ बंगाली में एक कविता की कुछ लाइनें सुनाते हैं:
न यह ज़मीन मेरी है
न यह जगह मेरी है
फिर भी इसे अपना घर बनाया मैंने
यहां अपना घर बनाया मैंने
लेकिन अंत में इस घर का मालिक कौन है?
वही जो इस धरती का मालिक है
मेरा यहां कुछ नहीं.
अंतत: शेख़ का जीवन उसे गीता घाट के अमन बिरादरी आश्रय गृह में ले आया. मेरे सहकर्मियों ने उसे समझाया कि उसे पूरी ज़िंदगी दवाई खानी पड़ेगी तथा आश्रय गृह के दरवाज़े उसके लिए ताउम्र खुले हैं. इस तरह गीता घाट उसका पहला घर बना, बचपन में बंगाल में स्थित अपना पुश्तैनी घर छोड़ने के बाद पहला घर. शेख़ यहां एक सक्रिय स्वयंसेवक की तरह काम करता था. टीबी के आश्रयहीन मरीज़ों और घायल लोगों के लिए वह बाजार से सब्जियां और दवाईयां लाने का काम करता था. उसने उस आश्रय गृह में रहने वालों और काम करने वाले कई लोगों से दोस्ती कर ली और मरीज़ों को अपने रिक्शे से अस्पताल ले जाने का काम भी किया करता था.
ईद के कुछ रोज़ पहले, एक गर्म रात में शेख़ ने गीता घाट के पास एक व्यस्त हाइवे पर आख़िरी नींद ली. ज्यादातर लोग यह नहीं समझ पाते कि बेघर लोग अपने जीवन को दांव पर लगाकर हाइवे के किनारे क्यों सोते हैं? हमें भी इसका उत्तर जानने में सालों लग गए. उत्तर क्या मिला — मच्छर.
हमने जाना कि खासकर गर्मियों और बारिश के दिनों में बेघर लोग हाइवे के किनारे रात बिताना चाहते हैं, क्योंकि तेज चलते वाहनों के ट्रैफिक के कारण मच्छर आस पास नहीं आते. पार्क इत्यादि में सोना कठिन होता है, क्योंकि यहां रात भर कीड़े परेशान करते हैं. लोगों ने जाना कि वाहनों के धुएं के कारण मच्छर भाग जाते हैं. ट्रैफिक के शोरगुल, लाइट के बावजूद भी उन्हें हाइवे के किनारे इन सबसे पनाह और थोड़ी नींद मिल जाती है.
अमन बिरादरी के हमारे सहकर्मियों ने शेख़ को कई बार समझाया कि हाइवे के किनारे ना सोए. शेख़ ने उन्हें कहा था कि वहां मच्छरों के कारण बिल्कुल नींद नहीं आती है. “कम से कम हाइवे के किनारे फुटपाथ पर कुछ देर तो सो लेता हूँ.”
घर की तलाश
हम निश्चित तौर पर यह नहीं बता सकते कि उस रात क्या हुआ, लेकिन तेज़ रफ़्तार वाले एक ऑटो-टैम्पो टैक्सी वाले ने शेख़ के ऊपर गाड़ी चढ़ा दी थी. उस वाहन ने शेख़ के शरीर को कुछ दूर तक घसीटा जिसके बाद वह टेम्पो पलट गया और उसके 19 वर्षीय ड्राइवर का पैर भी टूट गया.
शेख़ की मौत से कुछ हफ़्तों पहले, उसने बंगाल में अपने परिवार की तलाश करने के लिए हमारी मदद लेने की बात छेड़ी थी. उसके पास बस अपने बचपन की कुछ धुंधली यादें थीं, लेकिन फिर भी वह अपने परिवार के किसी व्यक्ति को शायद ढूंढ सकता था. लेकिन, ऐसा नहीं हो पाया.

मोहम्मद अब्दुल क़ासिम अली शेख़ का जीवन और उनकी मौत एक बार फिर हमें आइना दिखाते हैं कि हमने किस तरह की दुनिया का निर्माण किया है. एक ऐसी दुनिया जिसके शहरों में कुछ घंटों की सुकून भरी नींद के लिए लोग अपने फेफड़ों को बर्बाद करने और जीवन को दांव पर लगाने के लिए मजबूर हैं. हमने एक ऐसे संसार का निर्माण किया है, जहां हमारे भाइयों और बहनों को भूख और अकेलेपन का शिकार होना पड़ता है लेकिन हमारे शहर को कोई परवाह नहीं होती.
मैं शेख़ का शोक मना रहा हूं, हम सब का शोक मना रहा हूं.