ग्राउंड रिपोर्ट: मोदी जी! बनारस के इस गांव में 200 से ज्यादा विकलांग, नाम नहीं इनके हालात बदलिए
ऐसा कहा जाता है कि इस गांव के भू-जल में केमिकल है जिसकी वजह से यहां के लोग विकलांग हो जाते हैं.

प्रधानमंत्री विकलांगों के कल्याण की बात करते हैं और इसी कड़ी में उन्होंने “दिव्यांग” नामक शब्द की खोज की ताकि विकलांगों के प्रति समाज का नजरिया बदले. लेकिन, प्रधानमंत्री की इस भावुकता का खोखलापन उनके संसदीय क्षेत्र वाराणसी के सेवापुरी ब्लॉक में रहने वाले सूरज कुमार बताते हैं. सूरज विकलांग हैं और उनके गांव में विकलांगों की बड़ी आबादी रहती है.
सूरज कहते हैं, “मेरा एक पैर काम नहीं करता है, लाठी के सहारे से चलना पड़ता है. बड़ी मुश्किल से थोड़ी सी दूरी तय कर पाता हूं. जब मैं रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाता हूं तो सोचिए अपनी ज़िंदगी की मंजिल मैं कैसे पा सकूंगा?. पता है… मुझे अपनी ज़िंदगी से शिकायत और इस दुनिया से नफ़रत कब होती है, “जब लोग कहते हैं कि अरे तुम्हारा तो पैर ख़राब है और तुम इस काम को नहीं कर सकते, जबकि मुझे मालूम है कि मैं वो काम कर सकता हूं, और बेहतर तरीके से कर सकता हूं.”
सूरज कुमार बीए पास हैं और फिलहाल सरकारी नौकरियों की तलाश में लगे हैं. इस क्षेत्र में सूरज के अलावा सैकड़ों ऐसे विकलांग हैं जो अपनी आजीविका के लिए तरस रहे हैं. वाराणसी जिला मुख्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर इलाहाबाद मार्ग के हाइवे किनारे बसे इस क्षेत्र के बेनीपुर, कर्धना और पूरे (एक नाम) गांव में विकलांगों की संख्या बहुत ज्यादा है.
3 दिसंबर को दुनियाभर में विश्व विकलांगता दिवस मनाया जाता है. इस दिन को मुख्य रूप से विकलांगों के प्रति नागरिकों के व्यवहार में बदलाव लाने और उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए याद किया जाता है. इस अवसर पर न्यूज़सेंट्रल24×7 ने वाराणसी के ‘पूरे’ गांव में के विकलांगों से मुलाकात की.
‘पूरे’ गांव में प्रवेश करते ही वसीम अकरम की दुकान मिलती है. 26 साल के वसीम विकलांग हैं. मोबाइल कवर, ईयर फोन और मोबाइल रिचार्ज का दुकान खोलकर फिलहाल वे अपनी आजीविका चला रहे हैं. वसीम अकरम का कहना है कि हमारे गांव में पीढ़ियों से लोग विकलांग पैदा हो रहे हैं, कुछ लोग पैदा होने के बाद कुछ दिन ठीक रहते हैं उसके बाद विकलांग हो जाते हैं.
इसी गांव के एक बुजुर्ग श्यामा प्रसाद को कुछ महीने पहले पैरालिसिस हो गया था. वे कहते हैं, “सालों से ऐसा होता आ रहा है कि हमारे गांव में बहुत अधिक संख्या में विकलांग हैं. ऐसा कहा जाता है कि इस गांव के भू-जल में केमिकल है जिसकी वजह से यहां के लोग विकलांग हो जाते हैं.”
इस क्षेत्र में काम करने वाले कस्तूरबा सेवा समिति के संस्थापक विनोद कुमार बताते हैं कि, “इस गांव की कुल जनसंख्या करीब चार हज़ार है जिसमें लगभग दो सौ लोग विकलांग हैं. यहाँ बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक सभी उम्र के लोग विकलांगता के शिकार हैं.” विनोद कुमार कहते हैं कि इन लोगों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि ये इलाज करा सकें. अगर कुछ लोगों का मेडिकल सर्टिफिकेट से फ्री में इलाज होने की बात हो भी जाती है तो ये लोग मानसिक रूप से खुद को तैयार ही नहीं कर पाते हैं कि हां ये ठीक हो सकते हैं.
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए विनोद कुमार कहते हैं, “हम लगातार इनके साथ बात करते रहते हैं, हमने प्रयास करके इनके विकलांगता का सर्टिफिकेट और दिव्यांग पेंशन कार्ड बनवा दिया है. अधिकतर लोगों का पेंशन कार्ड बन गया है, लेकिन केवल पांच सौ रुपए (प्रति महिना) ही मिलता है, इतने कम पैसे से आजीविका चलाना काफी मुश्किल है.”
इसी गांव के 75 वर्षीय कमला प्रसाद दोनों पैर से विकलांग हैं. वे एक दुकान पर काम करते हैं. कमला प्रसाद बताते हैं, “जब राजेश मिश्रा यहां के सांसद थे तो उन्होने हमारे गांव के मुद्दे को संसद में उठाया था और उसके बाद हमारे गांव में एक पानी का टंकी भी लगा. लेकिन, इसके बाद कुछ नहीं हुआ”
